डर की राजनीति

सत्तालोलुपता सरकारों में असुरक्षा का डर पैदा करती है, जिसके फलस्वरूप ऐसी सरकारों की यह कोशिश रहती है कि लोकतंत्र में बोलने वालों को, सही और गलत का पर्दाफाश करने वालों को भी डराया जाय। डरा कर उन पर अंकुश लगाया जाय की वे सवाल न करें। सरकार मीडिया को डरा कर अपने नियंत्रण में लेती है। डरा हुआ मीडिया का डरे हुए पत्रकार की टोली होती है और यह डरा हुआ पत्रकार मरा हुआ नागरिक पैदा करता है। 


इसी लिए बोलने वालों को पुलिस द्वारा उठवा लिया जाता है, सूचीबध धाराओं के तहत FIR दर्ज किए जाते है, नौकरी से हटवाए जाते है जिनके कारण हमारी नागरिकता को कमज़ोर की जाती है। लोकतंत्र में नागरिक का दायित्व निभाने के लिये जानना और पूछना हर नागरिक की दो बुनियादी ज़रूरते हैं। जो नागरिक डर के कारण सवाल करने से परहेज़ करते है वे भूल जाते है कि देश संविधान से चलता है, न कि देश के शीर्ष पर बैठे लोगों की मनमानी से। एक नागरिक होते हुए भी हम डरते तब है जब हम अपने अधिकारों से या तो परिचित नहीं होते या हम अपने अधिकारों को कम जानने लगे हैं, अपने इरादों को, अपने भावनाओं को हम कम पहचानने लगे हैं। एक नागरिक डरता ही तब है जब वह खुद अपनी आवाज़ और बुलंदियों को कम जानकारी के कारण गंवाता है। जिसके फलस्वरूप आज पूरा सरकारी तंत्र डर को फैलाने के लिए डराया गया हुआ media का पुरजोर इस्तेमाल कर रही है और मीडिया हर रोज़ हर असहमति को एक नया नाम देकर नागरिकों को डराती है। मीडिया आजकल डराने की फैक्ट्री बन गई है।


जिस पत्रकार की चिंता अपनी रोजी रोटी बचाने में केंद्रित हो वह सही सूचना सच्चाई से हम तक पहुँचाने के बजाय भटकाने वाले समाचार प्रेषण (reporting) ही करेगा। चूंकि वह खुद ही एक डरा हुआ पत्रकार है। वह हमें भी डरा रहा है कि हम सवाल न करें। सवाल करने का उद्देश्य तो झूठ को पकड़ना या उसे उजागर करना ही तो होता है। और सवाल कौन करता है? वही जो बोलने से पहले विषय का पूरा अध्ययन करता है, सूचनाओं को इकट्ठा करता है क्योंकि तरह तरह की जानकारियां जमा करने के बाद ही सवाल किया जाता है। और यह कोई मुश्किल नहीं कि हम यह न जान सके कि पत्रकार जानकारी जुटाने हेतु ईमानदारी से अपना होमवर्क किया या नहीं, वह हमें सच्चाई से रूह-ब-रूह करा रहा है कि भटका रहा है। 


यही जिम्मेदारी एक नागरिक की भी होनी चाहिए कि वह हर समय अपने पास संबंधित और संशोधित जानकारी रखें। जानकारी होगी तभी तो सवाल कर पायेगा।


लोकतंत्र में सवाल करना बहुत ज़रूरी है। बिना जानकारी के सवाल करना संभव ही नहीं है। विरोध हम तभी कर पाएंगे जब हम तथ्यों के आधार पर बोल सकेंगे। तो बोलना या सवाल करना क्या असंवैधानिक है, प्रजातंत्र के प्रति गुनाह है? 


हमारा शाशन तन्त्र भी इतना डरा हुआ है कि सवाल करने वालों को नित नए नए नामों से नवाज़ते हैं जैसे कि देशद्रोही, अर्बन नक्सल, पाकिस्तानी, खालिस्तानी, राष्ट्रविरोधी आदि आदि कह कर media द्वारा सरकार की तयशुदा डराने की agenda चलाती है। तभी तो हमारे प्रधान सेवक लोकतंत्र के मंदिर में खड़े होकर आंदोलन के समर्थकों को -- वकीलों से लेकर मज़दूरों तक की पूरी जमात को -- सवाल उठाने पर उन्हें आंदोलनजीवी और परजीवी से नवाज़ते हैं। यानी कि प्रत्यक्ष रूप से किसान आंदोलन को लेकर जो हमारे गोदी मीडिया और भाजपाई भक्तों की जो धारणाएं हैं उसे प्रधानमंत्री जी ने अपनी सहमति का सैद्धान्तिक जामा पहना दिया। जो खुद विचारधारा की राजनीति करने का दावेदारी करते है वही लोकतंत्र में वैचारिक stand लेने वालो को परजीवी कहते है। खुद यदि विचारधारा की राजनीति करे तो राष्ट्रवादी, दूसरे यदि वैचारिक stand ले तो परजीवी होता है। क्या इस तरह की सोच किसी भी तरह से लोकतंत्र को समृद्ध करता है? ज़रा सोचिए की हमे किस तरह की अलोकतांत्रिक परंपरा की ओर धकेला जा रहा है जहां आंदोलन के होने की ज़रूरत को ही खारिज़ किया जा रहा है। जबकि प्रजातंत्र में आंदोलन का सम्मान नागरिक प्रहरी के रूप में होना चाहिए। यही हमारा संविधान भी कहता है। परन्तु हमारे प्रधान मंत्री आंदोलन के होने को ही अस्वीकार कर रहे हैं। 


आंदोलन तभी बड़ा होगा जब अलग अलग तरह के गुनी लोग उसमे शामिल हों और वे आन्दोलनकारियों के विचारों को, उनके मांगो की ज़रूरत अनुसार सम्बन्धित सलाह मशवरा दे सके, बातचीत द्वारा समाधान की सामग्री जुटाने में उनकी मद्त कर सके। अब आप ही सोचिये क्या ऐसे समर्थकों के बगैर कोई आंदोलन संभव हुआ है। याद कीजिये 2012, जब निर्भया के इंसाफ के लिए भाजपा के यही जमात आंदोलनकारियों की भीड़ को लेकर रायसीना हिल्स के सीने तक पहुंच गई जो आज कतई सम्भव नही है। चाहे निर्भया या अन्ना आंदोलन हो -- इनमे हर तरह के लोग वहां गए जो हर तरह की नाइनसाफी के खिलाफ निकल पड़े। खुद नरेंद्र मोदी 1974 के नवनिर्माण छात्र आंदोलन में मुख्य भूमिका निभाई और यह स्वीकार भी

किया कि वह कई आंदोलनों में सक्रिय भी रहे। तो तब वह क्या आंदोलनजीवी या परजीवी थे? जबकि यह बात छुपी नहीं की अन्ना आंदोलन को संघ का सहयोग था और किसानों ने अपने आंदोलन में किसी भी राजनीतिक पार्टी के साथ अपना मंच साझा नहीं किया। आश्चर्य की बात तो यह है कि जो प्रधानमंत्री पायजामा के नाप से लोगो को पहचानने से लेकर foreign destructive ideology (FDI) तक जैसे नए नए नामकरण कर देते हैं,  "गोली मारो सा....." पर उनकी न ही कोई प्रतिक्रिया न ही कोई नामकरण होता है। 


तो हमारे भाषणजीवी के परिभाषा के अनुसार क्या सरकार के समर्थन में ट्वीट करने वाले बॉलीवुड के फिल्मकारों और खिलाड़ियों को सरकारजीवी, परजीवी कहा जाय या इनको परजीवी के नजरिये से देखना गलत होगा? ज़रा सोचिए। 


इतिहास गवाह है कि आंदोलन को मजबूत करने हेतु विचारों की आवाजाही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्रोतों के द्वारा होती रही है। केनेडी काल के अमेरिका के प्रख्यात आंदोलनकारी मार्टिन लूथर किंग ने एक मशहूर भाषण "I Have A Dream" दिया था और कबूला की वे महात्मा गांधी से बहुत प्रेरित हैं। किंग रंगभेद, सिविल राइट्स, बेरोज़गारी और गरीबी के खिलाफ एक लंबी लड़ाई को महात्मा गांधी के शांति और अहिंसा के आदर्शों के बुनियाद पर आंदोलित किया और सफलता पाई। दक्षिण अफ्रीका के नेल्सन मंडेला ने भी गांधी के अहिंसा के आदर्शों से प्रेरित हो कर आज़ादी की लड़ाई लड़ी। इन आंदोलनकारियों ने गांधी के महानतम आदर्शों को अपने आवाम के समक्ष रखा। गांधी जी उनके लिए एक आदर्श थे न कि foreign destructive ideology (FDI). खुद गांधी कई आन्दोलन किये। तो क्या गांधी भी आन्दोलनजीवी, परजीवी कहलाने लगेंगे? वह गांधी जो दक्षिण अफ्रीका से लेकर चंपारण तक कई आनंदलनो को अंजाम दिया!!! 


किसान आंदोलन को विदेशों से समर्थन ज़रूर मिला परन्तु किसान इतने अनजान नही है कि उनको बहलाया फुसलाया जा सके। जो प्रधानमंत्री वोट बटोरने और सत्ता को विशाल बहुमत दिलाने में इतने माहिर है, तो क्या आंदोलनजीवी, परजीवी और "FDI" के आगे वे इतने फीके पड़ गए है कि चन्द किसानों को मना नहीं पा रहे? या वे केवल अनपढ़ों की जमात को ही समझाने (भटकाने) में शक्षम है, समझदारों को नही जिनको वे भोले भाले भी कहते है। बंधुगण, अब आप ही तय करें कि भोले भालों को समझाना (भटकाना) अनपढ़ों की तुलना में ज़्यादा आसान है या नही। तो किसान अपने आप में सक्षम है, वह किसी के बहकावे में आने वाला नहीं है। वह लोकतंत्रजीवी है। इन्ही लोगों का समाज मे होने के कारण आज लोकतंत्र जीवित है।


हमारे प्रधानमंत्री कल तक तो यह ट्वीट करते हुए थकते नहीं थे की हमारे देश मे जन आंदोलन की बहुत जरूरत है। ये वही आंदोलनभोगी, आन्दोलनरोगी हैं जो असल मे लोकतंत्र में परजीवी होते हैं, जो आंदोलन के रास्ते राजनीति में आते हैं और सत्ता में पहुंच कर आंदोलन के रास्तों को बंद कर देते हैं।


तो क्या यह समझा जाए कि किसान की सूझबूझ, उनकी एकता ने सरकार की गलतियों का एहसास तो करा दिया है, डरा दिया है और सरकार अब प्रतिष्ठा का मुद्दा बना कर पीछे हटने से शर्मिंदगी महसूस कर रही है? इसलिए सरकार डेढ़ साल तो क्या 2 साल तक कृषि कानूनों को लागू करने पर रोक लगाने को तैयार है। शायद 2024 के चुनाव से पहले रुष्ट किसानों के मांगों को मान कर सरकार को चुनावी लाभ का विकल्प इस संभावित विलम्ब में मिल जाये। देखना यह है कि क्या किसान डेढ़ दो साल का इंतज़ार करेगी?

Comments

Popular posts from this blog

G20 Summit 2023 and challenges to India’s Presidency

Russia-Ukraine Conflict

BJP PROMOTING CONSPICUOUS COMMUNAL NARRATIVE