उठिए, जगाये और पूछिये -- मौतों का जिम्मेदार कौन

आज हम सरे आम सांपों से घिरे हैं। लाशों के ढेर लग गए। किस आस्तीन के सांपों की बात कर रहे हैं? सांप तो आस्तीन से बाहर आ गए हैं। सरे आम डस भी रहे हैं। और हमे पिछले 70 साल की अफीम की चटनी को विषहर औषध (antidote) की तरह चटा-चटा कर हमें यह समझाया जा रहा है कि जो काम पिछले 70 सालों में नहीं हुआ वह अब हो रहा है। जी हाँ, मौत के सौदागरों को तो हम देख ही रहे हैं।

घर से तो हम निकल नहीं सकते। इतने आतंकित हैं कि अपने को कुछ हो गया तो कोई गारंटी नही अड़ोस-पड़ोस से भी कोई मदद के लिए आएगा। सब आतंकित हैं। चलो यदि कोई आ भी गया तो अस्पताल, बेड, दवाई या ऑक्सीजन मिलेगी भी कि नहीं उसकी भी गारंटी नही। मंदिर मस्जिद में देश को इतना उलझा दिया की 7 सालों में अस्पताल, स्वास्थ्य सेवाएं, स्कूल, कॉलेज व शिक्षा के बारे में सोचा ही नही।

मैं समझ सकता हूँ कि मोदी के दीवानों को मेरी प्रतिक्रया मोदी के वजह से उन लाखों लोगों के अपनों को खोने और उनके घर उजड़ने से ज्यादा अब भी मोदी का विरोध खटक रहा है। 

हम किस तरह से इस पूरी तरह से ध्वस्त प्रशासन का साथ दें जब खुद हम त्रस्त लोगों के पास खड़े नही हो सकते? lockdown में हैं और lockdown का पालन ही कर रहे हैं। प्रशासन हम लोगों को कितना असहाय बना दिया है कि अब तो गंगा में लाशें तैर रही है। और और और….. हम सवाल भी न करे!!! कैसा समय है कि जो ज़िंदा है वो झूठ बोल रहा है और लाशें कभी श्मशान में तो कभी गंगा में बहती हुई सच बोल रही हैं।

भारत को विश्व गुरु बनाने के नाम पर भोली जनता को ठगने वालों ने उस जनता के साथ बहुत बेरहमी की है। विश्व गुरु भारत आज मणिकर्णिका घाट में बदल गया है। जिसकी पहचान बिना ऑक्सीजन से मरे लाशों से हो रही है।

धर्म की राजनीति के नाम पर लंपटों की बारात सजाने वाले इस देश के पास एक साल का मौका था। इस दौरान किसी भी आपात स्थिति के लिए स्वास्थ्य व्यवस्था को तैयार किया जा सकता था। लेकिन नहीं किया गया। इस बार की हालत देखकर लगता है कि भारत सरकार ने कोविड की लहरों को लेकर कोई आपात योजना नहीं बनाई है। दरअसल अहंकार हो गया है और यह वास्तविक भी है कि लोग मर जाएंगे फिर भी धर्म के अफीम से बाहर नहीं निकलेंगे और सवाल नहीं करेंगे। और मेरे जैसे जो सवाल करेंगे इन्हें सलाह दी जाएगी कि घर बैठे शासन व प्रशासन की आलोचना के बजाय उनकी मदद करें।

तो क्या एक संवेदनशील इंसान रोते बिलखते असहाय लोगों की हृदय विदारक चीतकार से बेपरवाह रहे और  संवेदनहीन सरकार व प्रशासन से सवाल न करें? संवेदनशील होना ही मानवता है। संवेदनशील व्यक्ति न तो भ्रम फैलता है और न किसी को भ्रमित करता है, व अफवाह नही फैलता और न ही negativity। वह तथ्यों के आधार पर सूचनाएं इकट्ठा करता है ताकि सरकार से सटीक सवाल कर सके। लोगों के सामने सच्चाई आये, बात फैले और सरकार तक जाय। इससे ज़्यादा शासन व प्रशासन की मदद क्या कर सकता है?

पर सरकार तो अंधी ही नही अपितु गूंगी भी है। गलती स्वीकारने की बात तो छोड़िये इतने बड़े राष्ट्रीय आपदा के प्रति अब तक दो शब्द सम्वेदना के भी नही निकले।

अरे हम जो भी हैं हम तो परेशान पीड़ितों के साथ है, आतताइयों या अपराधियों के साथ नही। यह आप सब जानते है पर कबुलेंगे नही।

कई fraud लोग धर्म की आड़ में महान बन गए और लोगों ने सोचना और देखना बंद कर दिया। मेरी कहानी, मेरा डर उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी आम जनता की। जिसके साथ देशभक्ति के नाम पर दुकान चलाने वालों ने गद्दारी की और बिना ऑक्सीजन के उसे मरता छोड़ दिया।

कहां है राष्ट्रवाद? वह अपने लोगों को अस्पताल में वेंटिलेटर नहीं दिला पा रहा है। एंबुलेंस नहीं दिला पा रहा है। श्मशान में लकड़ी का रेट बढ़ गया है। लोग अपनों को लेकर चीख रहे हैं। चिल्ला रहे हैं। हिन्दुस्तान का यह संकट वैज्ञानिक रास्तों को छोड़ जनता को मूर्ख बनाने और समझने के अहंकार में है। जनता कीमत चुका रही है। इस हाल में सरकार खुद को विश्व गुरु कहलाने का दंभ भरते हैं? हमें शर्म आती है सरकार को नही। क्योंकि हम lockdown का सही पालन कर रहे हैं और मेरे जैसे कई सचेतन लोग सवाल भी उठा रहे हैं। आप सुने या न सुने। मैं lockdown में ज़रूर हूँ पर मैंने अपने चेतना के किवाड़ों को खुला छोड़ रखा है। संवेदनशील अपने चेतनशीलता को lockdown मुक्त रखते है -- आप सुने या न सुने।

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